
बार-बार मुंह में छाले करते हैं परेशान? ये देसी नुस्खे देंगे तुरंत आराम
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क्या आप भी सुबह जल्दबाजी में बस दो मिनट ही ब्रश करते हैं? यह आदत आपके लिए गंभीर खतरा पैदा कर सकती है. दिल्ली में डेंटिस्ट डॉ. नीतू अग्रवाल के अनुसार, ओरल हेल्थ का ध्यान रखना बेहद जरूरी है. जल्दी-जल्दी ब्रश करना सिर्फ दांतों या मसूड़ों की समस्या ही नहीं, बल्कि कैंसर जैसे जानलेवा बीमारी का जोखिम भी बढ़ा सकता है.
डेंटल एक्सपर्ट्स के अनुसार, खराब ओरल हेल्थ का सीधा संबंध कई प्रकार के कैंसर से है. खासकर मुंह, गले और एसोफैगस (अन्नप्रणाली) के कैंसर से. इसके अलावा, सही तरीके से ब्रश न करने पर डिमेंशिया का भी खतरा होता है. इस बीमारी के कारण दिमाग में सूजन, दांतों में इंफेक्शन होने का खतरा रहता है. दांतों को सड़ने से बचाने के लिए रोज कम से कम एक बार ब्रश जरूर करें.
कैसे बढ़ता है कैंसर का खतरा?
जब आप ठीक से ब्रश नहीं करते तो मुंह में बैक्टीरिया जमा होने लगते हैं. इससे सूजन पैदा होती है, जिसे पीरियडोंटल रोग भी कहते हैं. लंबे समय तक रहने वाली यह सूजन शरीर में कैंसर कोशिकाओं के विकास को बढ़ावा दे सकती है. इसके अलावा मुंह में मौजूद हानिकारक बैक्टीरिया और मसूड़ों की बीमारी से निकलने वाले टॉक्सिन्स रक्तप्रवाह में मिलकर शरीर के अन्य अंगों में पहुंच सकते हैं, जिससे कैंसर का जोखिम बढ़ जाता है.
शराब या तंबाकू बढ़ाता है खतरा
कुछ अध्ययनों से यह भी पता चला है कि खराब ओरल हेल्थ मुंह में मानव पेपिलोमावायरस इंफेक्शन के खतरे को बढ़ा सकती है, जो गले और मुंह के कैंसर का एक प्रमुख कारण है. यदि खराब ओरल हेल्थ के साथ शराब या तंबाकू का सेवन भी किया जाए, तो कैंसर का खतरा कई गुना बढ़ जाता है, क्योंकि मुंह की खराब स्थिति इन हानिकारक पदार्थों के प्रभावों को और बढ़ा देती है.
कैसे करें बचाव?
डॉ. चेतना अवस्थी के अनुसार, अच्छी ओरल हेल्थ बनाए रखने के लिए दिन में कम से कम दो बार, दो मिनट के लिए ठीक से ब्रश करना बेहद जरूरी है, जिसमें दांतों, मसूड़ों और जीभ की अच्छी तरह सफाई शामिल हो. इसके अतिरिक्त, दांतों के बीच फंसे भोजन के कणों और प्लाक को हटाने के लिए रोजाना फ्लॉस का उपयोग करें. एंटीबैक्टीरियल माउथवॉश का इस्तेमाल भी मुंह को साफ रखने में मदद कर सकता है.
अपनी ओरल हेल्थ की नियमित जांच के लिए हर छह महीने या साल में एक बार डेंटिस्ट के पास जाना भी आवश्यक है. स्मोकिंग और अत्यधिक शराब के सेवन से बचना और एक संतुलित आहार लेना भी मौखिक स्वास्थ्य को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है. याद रखें, आपकी ओरल हेल्थ सिर्फ आपके दांतों के लिए नहीं, बल्कि आपकी ओवरऑल हेल्थ के लिए भी महत्वपूर्ण है.
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Disclaimer: खबर में दी गई कुछ जानकारी मीडिया रिपोर्ट्स पर आधारित है. आप किसी भी सुझाव को अमल में लाने से पहले संबंधित विशेषज्ञ से सलाह जरूर लें.
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दांतों और मसूड़ों की देखभाल के लिए लोग कई प्रकार के टूथपेस्ट और माउथवॉश का सहारा लेते हैं, लेकिन आयुर्वेद में सदियों पुरानी एक तकनीक ऑयल पुलिंग इन दिनों फिर से चर्चा में है. यह आसान लेकिन असरदार घरेलू तरीका मुंह के बैक्टीरिया को दूर करने और स्वच्छता को बनाए रखने में कारगर माना जा रहा है. ऐसे में चलिए अब आपको बताते हैं कि सांसों की दुर्गंध से लेकर मसूड़े की सूजन तक ऑयल पुलिंग कैसे राहत दे सकती है.
क्या है ऑयल पुलिंग और कैसे करता है काम?
ऑयल पुलिंग एक प्राचीन आयुर्वेदिक प्रक्रिया है, जिसमें तिल या नारियल तेल को मुंह में रखकर 10 से 20 मिनट तक हिलाया जाता है. माना जाता है कि यह तेल मुंह की सतह से विषैला तत्व, बैक्टीरिया और जमा मलबा बाहर खींच लेता है. इसके बाद तेल को बाहर थूक दिया जाता है. इस तकनीक को रोजमर्रा की दिनचर्या में शामिल करने से मुंह की दुर्गंध, प्लाक, मसूड़ों की सूजन और कैविटी जैसी समस्याओं से राहत मिलती है.
कैविटी के बैक्टीरिया से बचाव
मुंह में पाए जाने वाले स्ट्रेप्टोकोकस म्यूटन्स जैसे बैक्टीरिया दांतों को नुकसान पहुंचाते हैं. वहीं ऑयल पुलिंग इनकी संख्या घटकर कैविटी का खतरा भी कम करता है.
मसूड़ों की सूजन में राहत
नियमित ऑयल पुलिंग से मसूड़ों में सूजन और खून आना कम हो सकता है. इससे जिंजिवाइटिस जैसी समस्याओं का खतरा घटता है.
प्लाक जमा होने से रोकथाम
तेल से कुल्ला करने से दांतों पर प्लाक की परत कम बनती है. जिससे पीरियडोंटल रोगों की संभावना घटती है.
सांसों की दुर्गंध से छुटकारा
तेल मुंह में मौजूद दुर्गंध पैदा करने वाले बैक्टीरिया को साफ करता है. जिससे फ्रेश ब्रेथ मिलती है वह भी बिना केमिकल माउथवॉश के.
केमिकल फ्री ऑप्शन
ऑयल पुलिंग में इस्तेमाल होने वाले नारियल या तिल का तेल नेचुरल होता है और इसमें न तो अल्कोहल होता है और न ही कोई रासायनिक पदार्थ जिससे यह एक सुरक्षित और नेचुरल ऑप्शन बन जाता है.
इन बातों का रखें ध्यान
कुछ लोगों को नारियल तेल से एलर्जी हो सकती है इसलिए इस्तेमाल से पहले डॉक्टर की सलाह ले या फिर पैच टेस्ट करें. इसके अलावा शुरुआत में 20 मिनट तक तेल घूमाने से जबड़े में थकान हो सकती है. ऐसे में आप इसे शुरुआत में कम समय के लिए ही करें. बाद में धीरे-धीरे इसका समय बड़ा दें. वहीं अगर आप किसी विशेष दवाई वाले माउथवॉश या टूथपेस्ट का इस्तेमाल करते हैं तो डॉक्टर से पूछ कर ही ऑयल पुलिंग शुरू करें.
स्टेप बाय स्टेप कैसे करें ऑयल पुलिंग
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फेफड़ों का कैंसर भारत में सबसे जानलेवा बीमारियों में से एक है, लेकिन अब मरीजों को बार-बार दर्दनाक सर्जरी और जटिल प्रक्रियाओं से राहत मिलने की उम्मीद दिख रही है. इसकी वजह एक नई लिक्विड बायो बायोप्सी तकनीक है. यह गैर इनवेसिव जांच पद्धति है जिसमें केवल ब्लड सैंपल लेकर कैंसर की पहचान की जाती है. ऐसे में वर्ल्ड लंग कैंसर डे के मौके पर आज हम आपको बताएंगे कि यह तकनीक कैसे कैंसर के इलाज में क्रांति ला रही है.
फेफड़ों का कैंसर देर से पता चलना है सबसे बड़ी चुनौती
नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ की 2025 की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में कुल कैंसर मामलों में 5.9 प्रतिशत फेफड़ों के कैंसर है. जबकि इससे होने वाली मौतों का आंकड़ा 8.1 प्रतिशत है. डॉक्टरों के अनुसार शुरुआती लक्षण जैसे लगातार खांसी, थकान या सीने में दबाव आमतौर पर नजर अंदाज कर दिए जाते हैं. वहीं जब तक आप अस्पताल पहुंचते हैं तब तक कैंसर शरीर में फैल चुका होता है जिससे इलाज मुश्किल हो जाता है.
पारंपरिक बायोप्सी नहीं है हर बार संभव
कपड़ों के कैंसर की पहचान में अब तक टिशू बायोप्सी का इस्तेमाल किया जाता रहा है. जिसे ट्यूमर से ऊतक निकाल कर जांच की जाती है. लेकिन कई बार ट्यूमर फेफड़ों के ऐसे हिस्सों में होता है जहां पहुंचना मुश्किल होता है साथ ही बुजुर्ग, हार्ट या डायबिटीज के मरीजों के लिए यह प्रक्रिया जोखिम भरी हो सकती है. इसके अलावा एक बार ली गई बायोप्सी हर बार पूरी ट्यूमर की जानकारी नहीं देती है.
लिक्विड बायोप्सी बिना सर्जरी जांच का विकल्प
लिक्विड बायोप्सी एक आधुनिक और कम जटिल तकनीक है. जिसमें मरीज के खून की जांच करके पता लगाया जाता है कि उसमे कैंसर से जुड़ी जेनेटिक गड़बड़ियां या ट्यूमर डीएनए मौजूद है या नहीं. इससे न सिर्फ मरीजों को राहत मिलती है बल्कि डॉक्टर को भी कैंसर के जेनेटिक प्रोफाइल को समझने में मदद मिलती है. खास बात यह है कि यह तकनीक ऐसे जीन म्यूटेशन की पहचान कर सकते हैं जो भारतीय मरीजों में आम है. इससे डॉक्टर टारगेटेड थेरेपी शुरू कर सकते हैं जो पारंपरिक कीमोथेरेपी से ज्यादा असरदार साबित हो सकती है.
इलाज के दौरान भी रखी जा सकती है निगरानी
लिक्विड बायोप्सी की एक और खासियत यह है कि इसे इलाज के दौरान कई बार दोहराया जा सकता है. इससे डॉक्टर यह जान सकते हैं कि मरीज की बीमारी किस तरह प्रतिक्रिया कर रही है और कहीं ट्यूमर दवाओं के प्रति प्रतिरोधक तो नहीं बन रहा. अगर ऐसा होता है तो डॉक्टर तुरंत इलाज की दिशा बदल सकते हैं.
तकनीक में सुधार और भारत में तेजी से हो रहा है विस्तार
भारत के कई कैंसर संस्थानों में अब लिक्विड बायोप्सी को नियमित रूप से इस्तेमाल में लाया जा रहा है. वैज्ञानिक इसकी संवेदनशीलता बढ़ाने, लागत घटाने और अलग-अलग कैंसर में सटीकता सुधारने पर काम कर रहे हैं. जैसे-जैसे पर्सनलाइज्ड मेडिसिन का चलन बढ़ेगा यह तकनीक इलाज के मुख्यधारा में शामिल होती जाएगी.
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