पुरुषों को अपना शिकार बना रहा ये खतरनाक कैंसर, तेजी से ले जाता है मौत के करीब

पुरुषों को अपना शिकार बना रहा ये खतरनाक कैंसर, तेजी से ले जाता है मौत के करीब


कैंसर, जब हम यह नाम सुनते हैं तो हमारे अंदर एक डर सा बन जाता है. इसके पीछे कारण भी हैं, क्योंकि यह एक ऐसी बीमारी है, जिसका इलाज काफी महंगा होता है और आम इंसानों के लिए उतना पैसा खर्च करना संभव नहीं हो पाता है. यही कारण है कि कैंसर आज दुनिया में मौत का बड़ा कारण बन चुका है. लेकिन एक कैंसर ऐसा है जो पुरुषों को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचा रहा है. यह है लंग कैंसर यानी फेफड़ों का कैंसर. यह बीमारी बहुत खतरनाक है क्योंकि ज्यादातर लोगों को इसके बारे में देर से पता चलता है. आंकड़ों के अनुसार, हर दिन हजारों लोग इस कैंसर से जान गंवा रहे हैं. आइए जानते हैं यह क्यों बढ़ रहा है, इसके लक्षण क्या हैं और इससे कैसे बचा जा सकता है.

पुरुषों में क्यों बढ़ रहा है लंग कैंसर?

डॉक्टरों का कहना है कि लंग कैंसर के ज्यादा मामले पुरुषों में इसलिए दिखते हैं क्योंकि वे धूम्रपान ज्यादा करते हैं. सिगरेट, बीड़ी और तंबाकू लंग कैंसर की सबसे बड़ी वजह हैं. इसके अलावा, प्रदूषण और जहरीली गैसें भी बीमारी का खतरा बढ़ाती हैं.

कितना जानलेवा है यह कैंसर?

विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) और इंटरनेशनल एजेंसी फॉर रिसर्च ऑन कैंसर (IARC) की रिपोर्ट के अनुसार, लंग कैंसर से होने वाली मौतें दुनिया में सबसे ज्यादा हैं. हर साल करीब 18 लाख लोग इस बीमारी से मरते हैं, यानी हर दिन लगभग 4,900 मौतें होती हैं. भारत में भी स्थिति खराब है क्योंकि ज्यादातर लोगों को यह बीमारी आखिरी स्टेज पर पता चलती है.

कौन से लक्षण दिखने पर सावधान रहें?

लंग कैंसर के शुरुआती लक्षण बहुत साधारण होते हैं, इसलिए लोग इन्हें नजरअंदाज कर देते हैं. अगर ये लक्षण दिखें तो तुरंत डॉक्टर से मिलें:

  • लगातार खांसी रहना या खून वाली खांसी
  • सीने में दर्द
  • सांस लेने में परेशानी
  • अचानक वजन कम होना
  • बार-बार फेफड़ों में इंफेक्शन

कैसे बच सकते हैं इस कैंसर से?

  • धूम्रपान पूरी तरह छोड़ दें.
  • तंबाकू और सिगरेट से दूरी बनाएं.
  • प्रदूषण से बचने के लिए मास्क पहनें.
  • हेल्दी खाना खाएं और नियमित चेकअप कराएं.

लंग कैंसर पुरुषों के लिए सबसे बड़ा खतरा बनता जा रहा है. लेकिन अगर आप समय पर सावधानी बरतें और स्मोकिंग छोड़ दें, तो इस बीमारी से बचा जा सकता है. WHO और IARC के अनुसार, धूम्रपान छोड़ने से लंग कैंसर का खतरा 70 प्रतिशत तक कम हो सकता है. आज ही यह कदम उठाएं क्योंकि आपकी जिंदगी आपके हाथ में है.

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Disclaimer: खबर में दी गई कुछ जानकारी मीडिया रिपोर्ट्स पर आधारित है. आप किसी भी सुझाव को अमल में लाने से पहले संबंधित विशेषज्ञ से सलाह जरूर लें.

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हाथ-पैरों में दर्द से जुड़ी ये बीमारी, हो सकती है खतरे की घंटी

हाथ-पैरों में दर्द से जुड़ी ये बीमारी, हो सकती है खतरे की घंटी


Pain in Hands and Feet: अक्सर हम हाथों या पैरों में हो रहे हल्के दर्द को नजरअंदाज कर देते हैं. सोचते हैं थकान होगी या मांसपेशियों में खिंचाव. लेकिन यह दर्द शरीर में किसी गंभीर बीमारी की चेतावनी भी हो सकता है? हार्ट से जुड़ी एक खास स्थिति एंजाइना की शुरुआत भी शरीर के इन हिस्सों में दर्द से हो सकती है.

जब भी आपको या आपके परिवार के किसी सदस्य को हाथ और पैर में दर्द ज्यादा करें तो डॉक्टर को जरूर दिखाने जाएं, क्योंकि ये दर्द कभी-कभी सामान्य समस्या नहीं होती, इसके पीछे किसी तरह की बड़ी बीमारी भी हो सकती है. इसलिए आपका सतर्क रहना बहुत जरूरी है.

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क्या है एंजाइना?

एजाइना एक प्रकार की छाती से जुड़ी समस्या है, जो तब होती है जब दिल को पर्याप्त मात्रा में ऑक्सीजन और खून नहीं मिल पाता. इससे सीने में दबाव, जकड़न और जलन महसूस होती है. हालांकि कई मामलों में दर्द का असर हाथों, कंधों, गर्दन, पीठ या यहां तक कि पैरों तक भी महसूस हो सकता है.

डॉ. केके पाण्डेय बताते हैं कि, अगर व्यक्ति को बार-बार हाथों या पैरों में भारीपन, जलन या थकान जैसा दर्द हो रहा है और वह आराम करने पर ठीक हो जाता है, तो यह एंजाइना की तरफ इशारा हो सकता है.

किन लक्षणों को पहचानें

  • सीने में दबाव या जलन
  • बाएं हाथ या कंधे में भारीपन
  • चलते समय पैरों में थकान या दर्द
  • चढ़ाई या व्यायाम के समय सांस फूलना
  • आराम करने पर लक्षणों का कम हो जाना

जांच और इलाज

  • ईसीजी (ECG)
  • ट्रेडमिल टेस्ट (TMT)
  • ईकोकार्डियोग्राफी
  • एंजियोग्राफी
  • बचाव ही सबसे बड़ा उपाय

धूम्रपान और शराब से परहेज करें

  • संतुलित और कम वसा वाला भोजन लें
  • नियमित वॉक या हल्का व्यायाम करें
  • तनाव से दूर रहें
  • हाई बीपी और शुगर को कंट्रोल में रखें

हाथों-पैरों में दर्द को हल्के में लेना बड़ी भूल हो सकती है. यह एक गंभीर हृदय रोग का प्रारंभिक संकेत हो सकता है. समय रहते जांच और इलाज कराने से न केवल बीमारी को रोका जा सकता है, बल्कि जीवन को भी बचाया जा सकता है.

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ब्रेस्ट के पास ब्रा की रगड़ से स्किन हो गई काली, क्या यह भी कैंसर की निशानी?

ब्रेस्ट के पास ब्रा की रगड़ से स्किन हो गई काली, क्या यह भी कैंसर की निशानी?


बहुत सी महिलाएं ब्रेस्ट के पास या ब्रा स्ट्रैप के नीचे स्किन काली पड़ने की समस्या से परेशान रहती हैं. खासकर गर्मी के मौसम में या लंबे समय तक टाइट ब्रा पहनने के कारण यह परेशानी और बढ़ जाती है. ऐसे में मन में यह डर बैठ जाता है कि कहीं यह ब्रेस्ट कैंसर का लक्षण तो नहीं. सोशल मीडिया और इंटरनेट पर भी इस तरह के सवाल तेजी से सर्च किए जाते हैं, जिससे डर और बढ़ जाता है. क्या वास्तव में ब्रा की रगड़ से हुई स्किन डार्कनेस का मतलब कैंसर है? आइए जानते हैं मेडिकल साइंस और रिसर्च इस बारे में क्या कहती है और इसका सही कारण क्या है?

स्किन काली क्यों पड़ती है?

ब्रा की रगड़ या टाइट ब्रा पहनने से स्किन पर लगातार फ्रिक्शन होता है. इस वजह से उस जगह पर हाइपरपिगमेंटेशन हो सकता है. मेडिकल स्टडीज के मुताबिक, जब स्किन बार-बार रगड़ खाती है तो मेलेनिन का प्रोडक्शन बढ़ जाता है, जिससे स्किन डार्क हो जाती है. इसे फ्रिक्शनल मेलानोसिस कहा जाता है. कई बार पसीने और नमी के कारण उस जगह पर इंफेक्शन या फंगल इन्फेक्शन भी हो सकता है, जिससे स्किन और ज्यादा डार्क हो जाती है.

क्या यह ब्रेस्ट कैंसर का संकेत है?

Journal of Clinical and Aesthetic Dermatology और American Cancer Society की गाइडलाइन्स के अनुसार, सिर्फ स्किन का काला होना ब्रेस्ट कैंसर का संकेत नहीं है. कैंसर के लक्षण आमतौर पर ये हो सकते हैं:

  • ब्रेस्ट में गांठ (लंप)
  • निप्पल से डिस्चार्ज
  • ब्रेस्ट के शेप या साइज में बदलाव
  • स्किन पर सूजन या डिंपल पड़ना
  • लालिमा या लगातार दर्द

अगर इन लक्षणों के साथ स्किन काली हो रही है तो डॉक्टर से तुरंत चेकअप कराना जरूरी है.

क्या करें अगर ब्रा की वजह से स्किन काली हो रही है?

  • सही साइज की ब्रा पहनें ,
  • टाइट ब्रा फ्रिक्शन बढ़ाती है.
  • कॉटन ब्रा चुनें, सिंथेटिक फैब्रिक पसीना रोकता है, जिससे स्किन और डार्क हो सकती है.
  • हाइजीन का ध्यान रखें , रोज ब्रा बदलें और स्किन को सूखा रखें.
  • स्किन केयर करें,  एलोवेरा जेल, मॉइस्चराइज़र और सनस्क्रीन लगाएं.
  • फंगल इंफेक्शन पर ध्यान दें, खुजली या बदबू होने पर एंटी-फंगल क्रीम का इस्तेमाल करें.

कब डॉक्टर को दिखाएं?

अगर स्किन के साथ ब्रेस्ट में दर्द, गांठ, या निप्पल से डिस्चार्ज हो रहा है तो तुरंत डॉक्टर से संपर्क करें. स्किन काली होने की समस्या अधिकतर ब्रा की रगड़, मोटापा, पसीना और हाइजीन की कमी के कारण होती है, न कि कैंसर से.

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Lung Cancer Day: कैसे होती है लंग कैंसर की जांच, किस स्टेज तक बच सकती है मरीज की जान?

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Lung Cancer Day: हर साल 1 अगस्त को लंग कैंसर डे मनाया जाता है, जिसका उद्देश्य है लोगों को इस गंभीर बीमारी के बारे में जागरूक करना. फेफड़ों का कैंसर एक ऐसी समस्या है, जो दुनियाभर में लाखों लोगों की जान ले रह है, लेकिन समय रहते जांच और सही इलाज से इससे बचाव भी संभव है.

वैशाली में स्थित मैक्स अस्पताल के निदेशक-पल्मोनोलॉजी डॉ. शरद जोशी बताते हैं कि, लंग कैंसर की पहचान के लिए कई प्रकार की जांचें की जाती हैं. यदि किसी व्यक्ति को लंग कैंसर के लक्षण जैसे खांसी, सांस लेने में तकलीफ, सीने में दर्द, या रक्त आना दिखते हैं, तो डॉक्टर सबसे पहले शारीरिक परीक्षण करते हैं.इसके बाद, कुछ विशिष्ट जांचें की जाती हैं, जो लंग कैंसर की पुष्टि और स्टेज निर्धारित करने में मदद करती हैं.

X-रे और CT स्कैन

लंग कैंसर के संदेह में सबसे पहले X-रे किया जाता है, जिसमें सीने की तस्वीर ली जाती है. यदि X-रे में कोई असामान्यता दिखती है, तो डॉक्टर CT स्कैन का उपयोग कर सकते हैं, जो कैंसर की स्थिति और फैलाव को और स्पष्ट रूप से दिखाता है.

ब्रोंकोस्कोपी

इस प्रक्रिया में एक पतली, लचीली ट्यूब (ब्रोंकोस्कोप) नाक या मुंह के माध्यम से फेफड़ों में डाली जाती है. इसके जरिए डॉक्टर सीधे लंग्स के अंदर के हिस्से को देख सकते हैं और कैंसर के सटीक स्थान का पता लगा सकते हैं.

बायोप्सी

यदि ब्रोंकोस्कोपी के दौरान किसी संदिग्ध ट्यूमर का पता चलता है, तो बायोप्सी की जाती है. इसमें ट्यूमर का एक छोटा हिस्सा निकालकर जांच के लिए प्रयोगशाला भेजा जाता है, जिससे कैंसर की पुष्टि होती है.

PET स्कैन

  • इस स्कैन से यह पता चलता है कि कैंसर शरीर के अन्य अंगों में फैल चुका है या नहीं.
  • लंग कैंसर का स्टेज के बारे में जानिए
  • लंग कैंसर के स्टेज के आधार पर इलाज की योजना बनाई जाती है. लंग कैंसर चार स्टेजों में होता है.
  • स्टेज 1: कैंसर केवल फेफड़ों में होता है. इलाज से पूरी तरह ठीक होने की संभावना होती है.
  • स्टेज 2 और 3: कैंसर फेफड़ों के आस-पास के लिम्फ नोड्स में फैल चुका होता है. इस स्टेज में इलाज से जीवनकाल बढ़ाया जा सकता है, लेकिन पूरी तरह ठीक होना कठिन हो सकता है.
  • स्टेज 4: कैंसर शरीर के अन्य अंगों में फैल चुका होता है. इस स्थिति में कैंसर का इलाज पूरी तरह संभव नहीं होता, लेकिन उपचार से लक्षणों में आराम और जीवन की गुणवत्ता को बेहतर किया जा सकता है.

सही समय पर जांच और उपचार से मरीज की जान को कई स्टेजों तक बचाया जा सकता है. शुरुआती स्टेज में निदान होने पर जीवन की संभावना बहुत बेहतर होती है.

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क्या जीन एडिटिंग से खत्म हो सकता है डाउन सिंड्रोम? जापानी वैज्ञानिकों की नई खोज ने जगाई उम्मीद

क्या जीन एडिटिंग से खत्म हो सकता है डाउन सिंड्रोम? जापानी वैज्ञानिकों की नई खोज ने जगाई उम्मीद


जापान के मिए यूनिवर्सिटी के साइंटिस्ट्स ने डाउन सिंड्रोम को लेकर एक क्रांतिकारी कदम उठाया है. इस यूनिवर्सिटी की रिसर्च टीम ने CRISPR-Cas9 तकनीक के जरिए मानव कोशिकाओं के एक्स्ट्रा 21वें क्रोमोजोम को हटाने में सफलता पाई है. यह वही क्रोमोसोम है जिसकी एडिशनल एपियरेंस से डाउन सिंड्रोम जैसी अनुवांशिक स्थिति उत्पन्न होती है. यह प्रयोग अभी केवल लैब लेवल पर किया गया है, लेकिन इसके नतीजे चौंकाने वाले हैं.

कोशिकाओं में दिखा सामान्य व्यवहार

रिसर्च टीम ने एलील स्पेसिफिक एडिटिंग टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल किया है, जिसमें सिर्फ एक्स्ट्रा क्रोमोसोम को निशाना बनाकर हटाया गया है. जबकि बाकी दो सामान्य क्रोमोसोम सुरक्षित रहे. इस बदलाव के बाद प्रभावित कोशिकाओं ने सामान्य कोशिकाओं जैसा व्यवहार करना शुरू कर दिया. वह तेजी से बढ़ने लगी और उन्हें जैविक तनाव भी काम देखा गया.

लेबोरेटरी से असल जीवन तक पहुंचने में अभी दूरी
यह रिसर्च लैबोरेट्री लेवल पर एक बड़ी सफलता मानी जा रही है, लेकिन इससे वास्तविक जीवन में लागू करना आसान नहीं है. एक्सपर्ट्स का कहना है कि शरीर के अंदर जीन एडिटिंग टूल्स को सुरक्षित और सटीक तरीके से पहुंचना अभी एक गंभीर चुनौती है. कुछ एक्सपर्ट्स का कहना है कि यह रिसर्च केवल एक चिकित्सीय चमत्कार नहीं बल्कि है उन बच्चों के संज्ञानात्मक और विकासात्मक भविष्य को भी बदल सकता है जो डाउन सिंड्रोम से पीड़ित होते हैं. हालांकि भ्रूण या शुरुआती स्टेज के भ्रूणीय कोशिकाओं में इस तकनीकी का इस्तेमाल कई जोखिमों को जन्म दे सकता है. जैसे अनचाहे जेनेटिक बदलाव, बड़ी डिटेलेशन या मोजेइज्म जैसी स्थितियां.

सवालों को नहीं किया जा सकता अनदेखा
इस तकनीक के सफल होने की संभावना में कई नैतिक बहसों को भी जन्म दिया है. अगर किसी व्यक्ति की आनुवंशिक स्थितियों को जन्म से पहले ही बदलने की क्षमता हमारे पास आ जाए तो क्या ऐसा करना चाहिए या फिर यह मानव विविधता और स्वीकार्यता के मूल्यों के विरोध होगा. इसे लेकर कुछ एक्सपर्ट्स कहते हैं कि भले यह तकनीकी मेडिकल दृष्टिकोण से उम्मीद जगाती हो. लेकिन हमें यह भूलना नहीं चाहिए कि डाउन सिंड्रोम वाले लोग आज समाज का सक्रिय हिस्सा है जो शिक्षा, काम और सामाजिक जिम्मेदारियां में योगदान दे रहे हैं. उन्हें सिर्फ उनकी स्थिति से परिभाषित नहीं किया जा सकता है.

साइंस और संवेदना दोनों का हो संतुलन
साइंटिस्ट उन्नति और मानवीय करुणा के बीच संतुलन बहुत जरूरी है. माना जा रहा है इस तकनीकी की दिशा तय करते समय केवल वैज्ञानिक दक्षता नहीं बल्कि एक समावेशी और संवेदनशील नैतिक संवाद भी माना जा रहा है. ताकि यह तकनीक मानव व्यवस्था को चुनौती देने की बजाय उसे स्वीकारने का जरिया बन सके.

 

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हमारी स्किन पर हर वक्त रहता है यह वायरस, धीरे-धीरे बन जाता है कैंसर

हमारी स्किन पर हर वक्त रहता है यह वायरस, धीरे-धीरे बन जाता है कैंसर


आपने HPV वायरस के बारे में जरूर सुना होगा, जिसे ज्यादातर लोग गर्भाशय ग्रीवा (सर्वाइकल) कैंसर से जोड़ते हैं. लेकिन क्या आप जानते हैं कि HPV का एक प्रकार ऐसा भी है जो हमारी त्वचा पर बिना किसी नुकसान के चुपचाप रहता है? इसे बीटा-HPV कहा जाता है. वैज्ञानिकों का अब तक मानना था कि यह वायरस सीधे कैंसर नहीं करता, बल्कि सूरज की रोशनी से होने वाले नुकसान को बढ़ाने में मदद करता है.

नई खोज से वैज्ञानिक भी चौंके

अब एक बड़ी खोज ने यह धारणा बदल दी है. अमेरिका के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ (NIH) के वैज्ञानिकों ने साबित किया है कि यह “निर्दोष” समझा जाने वाला बीटा-HPV स्किन कैंसर का सीधा कारण बन सकता है, खासकर उन लोगों में जिनकी इम्यून सिस्टम कमजोर है.

कहानी एक मरीज से शुरू हुई

कहानी शुरू होती है 34 साल की एक महिला से, जिसे बार-बार स्क्वैमस सेल कार्सिनोमा नामक त्वचा कैंसर हो रहा था. यह कैंसर उसके माथे पर बार-बार वापस आता रहा, जबकि डॉक्टर सर्जरी और इलाज करते रहे. शुरुआत में डॉक्टरों को लगा कि महिला की त्वचा सूरज की रोशनी से ठीक से रिपेयर नहीं कर पा रही और कमजोर इम्यून सिस्टम वायरस को बढ़ने दे रहा है.

वायरस ने किया स्किन कोशिकाओं पर कब्जा

जांच में चौंकाने वाला सच सामने आया. बीटा-HPV वायरस ने महिला की त्वचा की कोशिकाओं के डीएनए में प्रवेश कर लिया था और वहां प्रोटीन बना रहा था, यानी कोशिकाओं को पूरी तरह अपने कब्जे में कर लिया था. इससे पहले वैज्ञानिकों को नहीं पता था कि यह वायरस ऐसा कर सकता है.

कमजोर इम्यून सिस्टम बना बड़ी समस्या
महिला की इम्यून सिस्टम में भी गड़बड़ी थी. उसके टी-सेल्स ठीक से काम नहीं कर रहे थे, जिससे वायरस को रोकने की शक्ति खत्म हो गई थी. नतीजा यह हुआ कि वायरस लंबे समय तक शरीर में बना रहा और कैंसर बार-बार लौटता रहा.

स्टेम सेल ट्रांसप्लांट से मिला जीवन

NIH की टीम ने एक पर्सनलाइज्ड ट्रीटमेंट प्लान बनाया और महिला को स्टेम सेल ट्रांसप्लांट दिया, जिससे उसकी खराब इम्यून कोशिकाओं की जगह स्वस्थ कोशिकाएं आ गईं. नतीजा चमत्कारिक था. ट्रांसप्लांट के बाद महिला की सभी HPV से जुड़ी समस्याएं खत्म हो गईं, यहां तक कि कैंसर भी. तीन साल से ज्यादा समय से यह कैंसर दोबारा नहीं लौटा है.

कैंसर के इलाज का तरीका बदल सकता है

यह केस दिखाता है कि कमजोर इम्यून सिस्टम वाले लोगों में बीटा-HPV सीधे त्वचा की कोशिकाओं को हाइजैक कर सकता है और कैंसर का कारण बन सकता है. NIH के डॉ. एंड्रिया लिस्को के अनुसार, “यह खोज हमारी समझ को पूरी तरह बदल सकती है कि यह कैंसर कैसे विकसित होता है और इसे कैसे ट्रीट किया जाए. हो सकता है कि कई ऐसे मरीज हों जिनमें इम्यून सिस्टम की गड़बड़ी के कारण कैंसर हो रहा हो और उन्हें इम्यून-टारगेटेड ट्रीटमेंट से फायदा मिल सके.”

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